تتـجمَّـع السّـُحـُب سريعـاً، | |
يهفهف شـجر البلّـوط في الغابة، | |
وجـنبَ الشاطئ الأخضر، | |
حيث تتكسّـر الموجة بعنف وبعنف، | |
تجلس فـتاة صـغيرة | |
وتتـنهّـد في الليل المعـتكـر، | |
والعينُ مكـدّرة من الدّموع. | |
. | |
" القـلبُ مـات، | |
والدّنـيا خالـية، | |
ولا تعطي شيئاً لتحقـيق أيًّ أمنية بعد هذا، | |
أيّها المُـقدَّس، أرجـِعْ طفـلـَك إلـيك، | |
لقد ذقتُ سـعادةَ الدّنـيا، | |
فلقد عشتُ وعشقتُ! " | |
. | |
تجري الدّمـوع مدراراً دون جدوى، | |
والنّـُواحُ، لا يوقـظ المـوتى، | |
ولو عرفتُ شيئاً ما يعـزّي القلبَ ويَشـفيه، | |
بعـد اختـفاءِ مُـتـعةِ الحبِّ اللذيـذ، | |
سوف لا آبـى هِـبَـةَ السَّمـاء. | |
. | |
" دع ِ الدّمـوعَ تجـري من غير طـائل، | |
لا يستطيع النّـُواح أنْ يُـوقظَ المـوتى، | |
السَّعادة الأشـدّ ُ حـلاوةً للقلب الحـزين، | |
بعـد زوال مُـتعـةِ الحبِّ الجميـل، | |
هي النّـُواحُ والآلامُ التي يُـخلِّـفها الحبّ ُ." | |
*** | |
(( وهذه ترجمة القصيدة شعراً مقفّى)): | |
* | |
عنـدما تكسو سماءَ الكونِ في الدّجْـنة طَيّاتُ الغيوم ِ | |
وتنـاغي شجرَ البلـّوط في الغـابة هبّـاتُ النسيم ِ | |
جنبَ ذاك الشاطئ الأخضرِ في الأعماق من ليلٍ بهيم ِ | |
تجلس الحسناءُ والآهـاتُ منها عبَـراتٍ تـتـفجَّرْ | |
عينـُها ملأى بدمـع لا ترى المـوجَ بعنفٍ يتكسَّرْ | |
" ياإلهـي مات قلبي وخلتْ دنـيايَ إلاّ من همـوم ِ | |
. | |
وأمـانيَّ الـتـي عـشتُ لهـا أحـلـمُ دَهـرا | |
ذهبـتْ مـثـلَ سـرابٍ وانقضتْ دنياي هَـدرا | |
فلَـقَـد عشـتُ وأحببتُ وكـان العـمرُ زهـرا | |
أيّـُها الأقـدسُ أَرجِـعْ طفـلَـكَ الغـالي إليـْكا | |
وخُـذِ القـلبَ الذي ذاب هـُيامـاً فـي يَـديـْكا | |
إنّني أُبصِـر دنيـايَ ظلاماً مُـدلَهِمّـاً مكفهـرّا " | |
. | |
ودموعي فوق خدّيَّ كنهرٍ ليس يـُطفي أيَّ جَمـرِ | |
ونُواحي ليس يُجدي المَيْتَ أنْ يُوقَظَ من أعماقِ قبرِ | |
لو عرفتُ الذي يشفي القلبَ مـنْ وَصْـبٍ وهَـجرِ | |
بـعدما يـذهـبُ سِـحـرُ الحبِّ كالطيفِ الجميلِ | |
بـعدما يخـبـو لهيبُ الـوجـدِ في روح الأصيلِ | |
لَرَشفتُ الحبَّ والمُـتعـةَ دوماً دون تفكـيرٍ بأمري | |
. | |
" فدعِ الدَّمعَ على الوجْـنـاتِ يجـري دون طـائلْ | |
إنَّ هذا النَوحَ لا يُوقظُ موتى غادروا شمسَ الأصائلْ | |
إنَّ أحلى ما يُـزيلُ الكَرْبَ عنْ قلبٍ أصابته الغوائلْ | |
بـعدَ عيـشٍ كان حُـلواً صار كالـعلـقـم مُـرّا | |
إذ ذَوتْ وردةُ روضٍ نشـرتْ بالأمـس عـطـرا | |
هو ما خلَّـفَه الحبّ ُ نُواحـاً وعذابـاً غيرَ زائـلْ " | |
* | |
ترجمة: د. بهجت عباس | |
** | |
Des Mädchens Klage. | |
Der Eichenwald brauset, die Wolken ziehn, | |
Das Mägdlein sitzet an Ufers Grün; | |
Es bricht sich die Welle mit Macht, mit Macht, | |
Und sie seufzt hinaus in die finstre Nacht, | |
Das Auge vom Weinen getrübet. | |
»Das Herz ist gestorben, die Welt ist leer, | |
Und weiter gibt sie dem Wunsche nichts mehr. | |
Du Heilige, rufe dein Kind zurück, | |
Ich habe genossen das irdische Glück, | |
Ich habe gelebt und geliebet!« | |
Es rinnet der Thränen vergeblicher Lauf, | |
Die Klage, sie wecket die Todten nicht auf; | |
Doch nenne, was tröstet und heilet die Brust | |
Nach der süßen Liebe verschwundener Lust, | |
Ich, die Himmlische, will's nicht versagen. | |
Laß rinnen der Thränen vergeblichen Lauf! | |
Es wecke die Klage den Todten nicht auf! | |
Das süßeste Glück für die Trauernde Brust | |
Nach der schönen Liebe verschwundener Lust | |
Sind der Liebe Schmerzen und Klagen |
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mardi 12 avril 2011
شكوى الفـتاة
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